नई दिल्ली: वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक ऐसी तकनीक प्रणाली विकसित की है जो एल्युमीनियम के मूल्यवर्धित और गैर मूल्यवर्धित, खतरनाक और गैर-खतरनाक मिश्रितकचरे को औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए तैयार करने में सक्षम है। इस किफायती तकनीक द्वारा एल्युमीनियम को रीसाइकिल (पुनर्चक्रित) कर उत्पादन प्रक्रिया में होने वाली मैटीरियल की क्षति को घटाया जा सकता है। सूक्ष्म, मध्यम एवं लघु उद्योगों (एमएसएमई) द्वारा इसका भलीभांति उपयोग किया जा सकता है। एमएसएमई एल्युमीनियम फाउंड्री और रीसाइक्लिंग उद्योगों के लिए भी यह तकनीक उपयोगी साबित हो सकती है।
श्री रामकृष्ण इंजीनियरिंग कॉलेज कोयंबटूर में एसोसिएट प्रोफेसर डा. सी. भाग्यनाथन, इसी संस्थान में प्रोफेसर डॉ. पी. करुप्पुस्वामी और सीएसआईआर-एनआईआईएसटी त्रिवेंद्रम के डॉ. एम. रवि ने मिलकर इस तकनीक को विकसित किया है। उनको इस अध्ययन में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के अंतर्गत संचालित आधुनिक विनिर्माण तकनीक कार्यक्रम से भी सहयोग मिला है और यह गतिविधि ‘मेक इन इंडिया’ की संकल्पना के अनुरूप है।
पारंपरिक एल्युमीनियम रीसाइक्लिंग तकनीक के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है। साथ ही उससे उत्पादन की प्रक्रिया में लोहा (एफई), टिन (एसएन) और लेड (पीबी) के रूप में भारी खतरनाक अवशेष भी निकलते हैं। इतना ही नहीं उसमें मैग्नीशियम, फेरस और हाई सिलिकन के मिश्र धातुओं को मानव द्वारा पृथक किया जाता है जिसके अपने जोखिम हैं। साथ ही उसमें पृथक्कृत मैग्नीशियम पर्यावरण के लिए भी अत्यंत खतरनाक होता है। इन मिश्र धातुओं का गलन वर्गीकृत एल्युमीनियम स्क्रैप के रूप में होता है।
इस तकनीक के बारे में डॉ. सी. भाग्यनाथन ने बताया, ‘पुरानी तकनीक के विपरीत यह नई तकनीक रीसाइकल्ड एल्युमीनियम गलन की शुद्धता एवं गुणवत्ता को बढ़ाती है। इस पूरी प्रक्रिया में मिश्रित एल्युमीनियम स्कैप मिश्रण को धोना, गलन -भट्टी में मौजूद अशुद्धियों को दूर करना, पिघले हुए मिश्रण में घुली हुई नाइट्रोजन गैस का विलगन और मोल्ड में धातुओं के परिशोधन एवं शुद्धीकरण जैसे बिंदु जुड़े हुए हैं। इसमें तीन समस्याओं को दूर किया गया है। एक लौह एवं सिलिकन कणों का पृथक्करण, दूसरा मैग्नीशियम के क्षरण को रोकना और तीसरा क्रोमियम, स्ट्रोनियम, जर्कोनियम इत्यादि तत्वों को जोड़कर निर्धारित सीमा के अंतर्गत उसकी मैकेनिकल प्रॉपर्टीज को सुधारना।’ डॉ. भाग्यनाथन के अनुसार, नई प्रक्रिया न केवल कीमत के मोर्चे पर किफायती और पर्यावरण के अनुकूल है, बल्कि उत्पादन के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है। जहां मौजूदा तकनीक में उत्पाद रूपांतरण दर केवल 54 प्रतिशत है, वहीं इस नई विकसित तकनीक में यह 70 से 80 प्रतिशत के बीच तक हो सकती है जो स्क्रैप की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी।
यह तकनीक, ‘टेक्नोलॉजी रेडीनेस लेवल’ (टीआरएल) मानक पर सातवें स्तर पर है और डा. भाग्यनाथन और उनकी टीम ने इसे विस्तार देने के लिए इलेक्ट्रिकल हाउसिंग ब्रैकेट, ऑटोमोबाइल केसिंग, वॉल्व कंपोनेंट्स, मोटर हाउसिंग ब्रैकेट इत्यादि पहलुओं की पूर्ति के लिए कई स्थानीय औद्योगिक साझेदारों के साथ हाथ मिलाया है। उनकी टीम इस तकनीक के पेटेंट का आवेदन करने की प्रक्रिया में भी है। फिलहाल कोयंबटूर की स्वयं इंडस्ट्रीज और सर्वो साइंटिफिक इक्विपमेंट्स के साथ इसे साझा किया गया है। भविष्य में इस तकनीक में कई नए पहलू जोड़कर उसे और आधुनिक एवं उपयोगी बनाने पर भी काम चल रहा है। (इंडिया साइंस वायर)