नई दिल्ली: जलाशयों में जलकुंभी का होना एक समस्या है। लेकिन, गुवाहाटी की दीपोरबील झील से जलकुंभी के साम्राज्य को खत्म करके उससे उपयोगी उत्पाद बनाए जा रहे हैं। इसकी शुरुआत योग करने के लिए चटाई (योगा मैट) बनाने से हुई है, जो स्थानीय मछुआरा समुदाय की छह युवतियों की पहल पर आधारित है। जलकुंभी से योगा मैट बनाकर ये युवतियां ‘कचरे से कंचन’ बनाने की कहावत को चरितार्थ कर रही हैं।
दीपोरबील झील में आने वाले प्रवासी पक्षियों में ‘काम सोरई’ यानी मूरहेन पक्षी सबसे आकर्षक होती है। इन पक्षियों के महत्व को समझाने के लिए जलकुंभी से बनायी जाने वाली मैट को ‘मूरहेन योगा मैट’ नाम दिया गया है।यह परियोजना विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के अंतर्गत कार्यरत स्वायत्तशासी निकाय उत्तर-पूर्व प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग एवं अभिगमन केंद्र (एनईसीटीएआर) की पहल पर आधारित है। जलकुंभी से उपयोगी उत्पादों के निर्माण के लिए मछुआरा समुदाय की जिन युवतियोंके नेतृत्व में यह कार्य शुरू किया गया है, उनमें रूमी दास, सीता दास, मामोनी दास, मिताली माइने दास, मिताली दास, औरभानिता दास शामिल हैं।
एनईसीटीएआर के महानिदेशक डॉ (प्रोफेसर) अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि “सबसे पहले जलकुंभी को पानी से निकालकर उसे सुखाया जाता है, और फिर योगा मैट, डलिया, बैग, वॉल-हैंगिंग एवं अन्य हैंडीक्राफ्ट उत्पाद बनाए जाते हैं। वर्षा ऋतु के पश्चात नवम्बर से फरवरी तक जलकुंभीतेजी बढ़ते हुए डेढ़ से दो फुट तक लंबी हो जाती है। लंबी जलकुंभी से मैट बनाने का काम काफी हद तक आसान हो सकता है। यही सोचकर हमने स्थानीय मछुआरों को योगा मैट बनाने का सुझाव दिया, और उसके लिए प्रशिक्षण तथा अन्य सहयोग देने की पेशकश की। यहीं से इस सिलसिले की शुरुआत हो गई।”
प्रोफेसर शर्मा ने बताया कि “मैट बनाने से पहले जलकुंभी के पौधों को सुखाना काफी चुनौतीपूर्ण होता है। जब समूह के सदस्यों के समक्ष 21 जून को मनाये जाने वाले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से पहले 3000 योगामैट तैयार करने का प्रस्ताव रखा गया, तो इस परेशानी के बारे में पता चला। 10 किलोग्राम जलकुंभी के पौधों को सूखने में लगभग 120 घंटे का समय लगता है। ऐसे में, करीब डेढ़ महीने के भीतर इतनी बड़ी संख्या में मैट तैयार कर पाने में समूह के सदस्यों ने असमर्थता जतायी। इस परेशानी से निपटने के लिए हमने उन्हें सोलरड्रायर मुहैया कराया है। इस ड्रायर से जलकुंभी को 36 घंटे में ही सुखाया जा सकता है। 20 चरखों की मदद से कताई का काम होता है, और एक दिन में 30 मैट तैयार की जाती हैं।”
समूह का नेतृत्व कर रही उन छह युवतियों ने समुदाय कि अन्य महिलाओं को भी मैट बनाने का प्रशिक्षण दिया है, जिससे अब 38 महिलाएं इस पहल से जुड़ गई हैं। इस मैट की सिलाई के लिए काले, लाल एवं हरे रंग के धागों का उपयोग किया जाता है, जो पूरी तरह से प्राकृतिक हैं। इन धागों को प्याज,एलोवेरा, केले आदि के पत्तों से फाइबर निकालकर बनाया जाता है। इस मैट की शुरुआती कीमत 1200 रुपये रखी गयी है। शुरुआती जानकारी दिए जाने के बाद समूह को लगभग 5000 योगामैट तैयार करने का आर्डर मिला है, जिससे समूह के सदस्यों को आगे काम करने के लिए प्रोत्साहन मिला है।
गुवाहाटी शहर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित मीठे पानी झील दीपोरबील एक रामसर स्थल है। रामसर स्थल से तात्पर्य अंतरराष्ट्रीय महत्व की दलदली भूमि से है। यह एक पक्षी वन्यजीव अभ्यारण्य के रूप में विख्यात है, जो प्रवासी पक्षियों की शरणस्थली भी है। यह झील स्थानीय मछुआरों के करीब नौ गाँवों के लोगों की आजीविका का अहम स्रोत है। लेकिन, जलकुंभीकी भारी बढ़ोतरी के कारण झील की स्थिति बदतर हो गई थी, जिससे यहाँ प्रवासी परिंदों से लेकर मछुआरों के लिए मुश्किलें खड़ी हो गईं।
प्रोफेसर शर्मा कहते हैं, “दीपोरबील झीलएवं वन्यजीव अभ्यारण्य गुवाहाटी एयरपोर्ट के बेहद नजदीक है। यह झील पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। यहाँ विभिन्न मौसमों में कई तरह के प्रवासी पक्षी आकर रहते हैं। जलकुंभी के कारण पिछले कुछ वर्षों के दौरान झील में प्रवासी पक्षियों की संख्या कम हुई है, जिससे पर्यटकों का आवागमन भी कम होने लगा। पर्यटकों के न आने से स्थानीय लोगों की आजीविका पर असर पड़ता है। राज्य सरकार समय-समय पर मशीन द्वारा जलकुंभीको निकालकर झील की सफाई कराती है। लेकिन, कुछ समय बाद यह दोबारा झील में बढ़ने लगती है।” उन्होंने बताया कि जलकुंभी के कारण स्थानीय पारितंत्र प्रभावित होता है। इसे जलाशयों से निकालकर बाहर फेंकने से भी कोई लाभ नहीं मिलता, और यह दोबारा उगने लगती है। जलकुंभी से ईको-फ्रेंडली उत्पाद बनाने से न केवल पारितंत्र सुरक्षित रहेगा, बल्कि स्थानीय लोगों कि आजीविका को भी बल मिलेगा।
एक ओर, जलकुंभी को हटाने से जहाँ झील अपने वास्तविक स्वरूप में उभरकर आ रही है, वहीं जलकुंभी के निस्तारित कचरे से उपयोगी उत्पाद भी बन रहे हैं। इस पहल से बन रही योगा मैट जैविक रूप से अपघटित होने के साथ-साथ कम्पोस्ट खाद में परिवर्तित हो सकती है। प्रोफेसर शर्मा का कहना है कि प्लास्टिक कचरे के बढ़ते दौर में ऐसे उत्पाद मजबूत ईको-फ्रेंडली विकल्प बनकर उभर सकते हैं। उन्होंने कहा है कि इस मैट को जल्द ही एक अनूठे उत्पाद के रूप में वैश्विक बाजार में प्रस्तुत किया जाएगा। (इंडिया साइंसवायर)