भवन निर्माण से जुड़े कचरे के निस्तारण की नई तकनीक

नई दिल्ली: भारतीय विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं नेइमारत निर्माण के लिए एक अत्यंत सक्षम तकनीक विकसित की है। उन्होंने भवन निर्माण एवं भवनों को ढहाए जाने से मिलने वाली सामग्री (सीएंडडी वेस्ट) और एल्केलाई-एक्टिवेटेड बाइंडर्स से ईंट बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन ईंटों का निर्माण ऊर्जा खपत के लिहाज से भी काफी किफायती है। इन्हें लो-सी ब्रिक्स नाम दिया गया है, जिन्हें पकाने के लिए उच्च तापमान वाली ऊष्मा की आवश्यकता नहीं। साथ ही इससे पोर्टलैंड सीमेंट जैसे हाई-एनर्जी मैटीरियल पर पर निर्भरता घटेगी। इस प्रकार यह तकनीक न केवल पर्यावरण के लिए अनुकूल है, बल्कि इससे भवन निर्माण में प्रयुक्त सामग्री अवशेष के निपटारे की समस्या से भी मुक्ति मिलेगी।

पारंपरिक रूप से भवन निर्माण में मिट्टी से बनी और चिमनी में पकाई गई ईंटों का प्रयोग होता है। इसमें किस्म-किस्म की ईंटों का चलन है। इस प्रकार की ईंटों के निर्माण में न केवल अधिक ऊर्जा लगती है, अपितु उनसे भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन भी होता है। इस समूची प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर उत्खनन और कच्ची सामग्री का भी प्रयोग होता है, जिसके अपने दुष्प्रभाव होते हैं। उनसे होने वाले निर्माण में निरंतरता की अपनी एक समस्या होती है। भारत में ईंटों और ब्लॉकों की 90 करोड़ टन की वार्षिक खपत है। इसके अतिरिक्त भवन निर्माण उद्योग हर साल करीब 7 से 10 टन के दायरे में निर्माण के दौरान निकलने वालाकचरा (सीडीडब्ल्यू)शेष छोड़ता है। ऐसे में इस नई तकनीकसे जहां कच्चे माल के संरक्षण को बल मिलेगा, साथ ही कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी।

ऐसी सामग्री के विकास की राह आसान नहीं थी। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आईआईएससी के वैज्ञानिकों ने फ्लाई ऐश और फर्नेस स्लैग का उपयोग कर एल्केलाई-एक्टिवेटेड ईंट और ब्लॉक बनाने वाली तकनीक विकसित की। शोधकर्ताओं ने एल्केलाई एक्टिवेशन प्रक्रिया के माध्यम से फ्लाई ऐश और ग्राउंड स्लैग की तापीय, ढांचागत और उनके टिकाऊपन से जुड़ी विशिष्टताओं को परखकर सीडीडब्ल्यू वेस्ट से कम कार्बन वाली ईंटें बनाने में सफलता प्राप्त की। सीडीडब्ल्यू की भौतिक-रासायनिक एवं संघनन की विशिष्टताओं का आकलन कर अपेक्षित मिश्रण का आवश्यक अनुपात हासिल किया गया। इसके उपरांत कम-कार्बन वाली ईंटों के निर्माण की प्रक्रिया का पूरा खाका तैयार हुआ। इसी मिश्रण के आधार पर ईंटें बनाई गईं। तत्पश्चात ईंटों की आभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) विशिष्टताएं परखी गईं।

आईआईएससी के इस प्रयास को भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की ओर से वित्तीय मदद प्राप्त हुई। इस नवाचार को स्वच्छ ऊर्जा शोध पहल के अंतर्गत मूर्त रूप दिया गया है। देश में वन निर्माण उद्योग को इससे बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद है वहीं इससे भवन निर्माण से जुड़े कचरे के निस्तारण की समस्या का समाधान भी हो जाएगा।

आईआईएससी के प्रोफेसर बीवी वेंकटरामा ने कहा, ‘इसके लिए एक स्टार्ट अप पंजीकृत कराया गया है, जिससे अगले छह से नौ महीनों में इन लो कार्बन ईंटों का उत्पादन शुरू हो जाएगा।’ (इंडिया साइंस वायर)

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